उत्तराखंड में चुनाव नजदीक है पहले उपचुनाव और फिर अगले साल विधानसभा चुनाव। पलायन बेरोजगारी और संस्कृति, हिंदुत्व जैसे मुद्दे पहाड़ में उछाले जाने वाले हैं, केंद्रीय नेतृत्व के भरोसे दोनों मुख्य पार्टियों चुनाव लड़ने वाली हैं और उत्तराखंड पर अब वे मुद्दे थोपे जाने वाले हैं जो कभी उत्तराखंड के हैं ही नहीं, जैसे हिंदू-मुसलमान, संस्कृति, राष्ट्रवाद इत्यादि।उत्तराखंड हिंदू बहुल एक शांतिप्रिय प्रांत है, हिंदू-मुसलमान जैसे शब्द हमारे लिए नहीं है, ये तो बस दिल्ली का चुनाव जीतने का एक फार्मूला हैै।
राष्ट्रवाद की बात करें तो आज हर एक पहाड़ी अपने बच्चे को फ़ौज में भेजना चाहता है और यही हर बच्चे का वहां सपना है। रही बात पलायन और संस्कृति की, चुनाव प्रचार में योगी आदित्यनाथ, राहुल गांधी आने वाले हैं और पलायन का मतलब उत्तर प्रदेश बहुत अच्छे से जानता है। संस्कृति का पाठ हमें RSS भाजपा के जरिए पढ़ाने वाला है, आपको जानकर हैरानी होगी RSS और भाजपा के लोग खुद कुमाऊनी-गढ़वाली बोलना तक नहीं जानते, चाहे कांग्रेस के लोग ही क्यों ना हो।मैं किसी पहाड़ी नेता को नहीं जानता जिसने आज तक कभी पहाड़ी भाषाओं में कोई रैली की हो या कुछ शब्द भी कहें हों।
उत्तराखंड के जन्म के 20 वर्ष बाद भी लगता है शायद पहाड़ी अच्छे नेता नहीं होते, दोनों पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री ऐसे बदलते है मानों जिलों में नौकरशाह बदल रहे हों और हमारे पहाड़ी नेतृत्व विहीन नेता इसे चुपचाप सहन कर लेते हैं। हमारे नेताओं की किसी भी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के सामने कुछ भी बोलने तक की हिम्मत नहीं होती।
शायद इन पहाड़ी नेताओं को कर्नाटक के बी एस येदुरप्पा, महाराष्ट्र के बालासाहेब ठाकरे व शरद पवार, बंगाल की ममता बैनर्जी और पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे नेताओं से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, तभी पहाड़ के आसन मुद्दे सुलझ पाएंगे और उत्तराखंड अपनी बात राष्ट्रीय स्तर पर रख पाएगा।
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